– दलबदलू नेताओं और राजनीतिक अवसरवाद का शिकार गोरखाली समाज
2024 के लोकसभा चुनावों से पूर्व पश्चिम बंगाल की पहाड़ियों में राजनीतिक गठजोड़ का दौर शुरू हो चुका है। दार्जिलिंग की पहाड़ियों में बिमल गुरुंग, अजय एडवर्डस और बिनॉय तमांग की तिकड़ी भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोर्चा तृणमूल-कांग्रेस गठबंधन के लिए बड़ा खतरा है। ये तीनों नेता पहाड़ी समाज को भूमि संबंधित दस्तावेज का त्वरित अनुदान जैसे सियासी मुद्दे को हवा देने में अब तक सफल रहे। इसी कड़ी में भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोर्चा के प्रमुख अनित थापा का नाम भी चर्चा में है। थापा पहाड़ की राजनीति पर नियंत्रण रखने वाले पहले सरकार-समर्थित नेता के तौर पर प्रसिद्ध हो चुके हैं। अन्य गोरखा नेताओं में हमरो पार्टी के अजॉय एडवर्ड्स, गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के बिमल गुरुंग और बिनय तमांग गोरखालैंड की मांग को उठाते हुए राजनीतिक गठबंधन करने में सफल रहे।
उत्तर बंगाल के पहाड़ी क्षेत्रों में, राजनीतिक दलों और गोरखा संगठनों ने एक अलग गोरखालैंड राज्य की अपनी खोज का नेतृत्व करने के लिए गोरखालैंड साझा संघर्ष समिति की स्थापना की गई थी। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष बिमल गुरुंग ने गोरखाओं के लिए एक अलग भूमि, गोरखालैंड की उनकी मांग को आगे बढ़ाने के लिए बीजीएसएसएस के गठन की घोषणा की थी। गुरुंग के अनुसार समिति पूरी तरह से गोरखा समुदाय की सेवा और गोरखालैंड की उनकी इच्छा के लिए समर्पित होगी और किसी भी राजनीतिक दल से जुड़ी नहीं होगी। गुरुंग ने कहा कि समूह मार्च में आंदोलन पर काम शुरू करेगा।
टीएमसी नेताओं का मानना है कि बंगाल को विभाजित करने का प्रयास किया जा रहा है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने यहां तक कहा कि वह अलग राज्य नहीं बनने देंगी। वह अपना खून देने के लिए तैयार हैं लेकिन वह भारतीय जनता पार्टी को बंगाल को विभाजित करने की अनुमति नहीं देंगी। भाजपा का आधिकारिक रुख राज्य को अलग करने के खिलाफ भले ही हो मगर अलीपुर द्वार के सांसद जॉन बारला सहित कई भाजपा पदाधिकारियों ने मांग की है कि उत्तर बंगाल को एक अलग राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में बदल दिया जाए। आदिवासी समाज के जॉन बारला ने गोरखा राजनीति से अपनी सियासी तकदीर तक बदल डाली। इस क्षेत्र का दुर्भाग्य देखिए कि 2009 के बाद से इस सीट से केवल भाजपा के प्रत्याशियों ने जीत हासिल की है। 2009 में पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह, 2014 में एसएस अहलूवालिया और 2019 में राजू बिस्ट इस सीट को जीतने में सफल रहे। बावजूद इसके दार्जिलिंग में गोरखाली समाज मुख्यधारा से कटा हुआ है।
गोरखाओं के जीवन स्तर में सुधार और उनकी आर्थिक प्रगति के लिए जीएसएसएस साझा मंच बना। 2007-2011 तक इस आंदोलन की धार तेज थी। उन दिनों जीएसएसएस के अनेक नेता कांग्रेस के संपर्क में थे, 2014 के बाद परिस्थितियां बदलने लगी। नरेंद्र मोदी की प्रचंड जीत के बाद पहाड़ और गोरखा राजनीति भगवा रंग में रंगने लगा। 2017 में दिल्ली के जंतर-मंतर से जीएसएसएस साझा मंच के जरिए वी के किरन ने अध्यक्षीय पारी की शुरूआत की। इस साझा मंच का मुख्य उद्देश्य गोरखालियों की आर्थिक, सामाजिक स्थिति में सुधार लाना, उन्हें मुख्यधारा में शामिल करना था।
शुरूआती दौर में में एंड्रयू गुरूंग, अंजली गुंजल शर्मा, विनित लेपचा, उत्तम छेत्री, रंजू परियार, रसिका छेत्री सहित सैकड़ों गोरखाली दिल्ली, बंगाल सहित पूर्वोत्तर राज्यों में आंदोलनरत रहे। यहीं से भाजपा इन पर डोरे डालने लगी। अगली कड़ी में संघ ने पश्चिम बंगाल व उत्तर-पूर्व के राज्यों के गोरखाली समाज को साधा। सत्ता की चाह में 105 दिन के लगातार धरना प्रदर्शन चला। उग्र आंदोलन की वजह से 13 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। जीएसएसएस में दरार आ चुकी थी। संघ-भाजपा की दखल के बाद पश्चिम बंगाल की दार्जिलिंग सीट से मणिपुर निवासी राजू बिस्ट भाजपा सांसद बने, गोरखा समुदाय को अपने पीछे लामबंद करने लगे।
गोरखाली हमेशा से राजनीति के शिकार बने। जीएसएस, दार्जिलिंग सहित पश्चिम बंगाल, उत्तर-पूर्वी राज्यों के उन सीटों पर स्थानीय गोरखा उम्मीदवारों को उतारना चाहती थी जहां ये बहुसंख्यक थे। भीरतघात का शिकार होकर जीएसएसएस भाजपा की हाथों का खिलौना बनने को मजबूर हुआ। इसी कड़ी में बिमल गुरुंग, अजय एडवर्डस, बिनॉय तमांग के साथ-साथ वंदना राय का नाम भी लिया जा सकता है जो भाजपा और संघ के नेताओं के संपर्क में है। वंदना राय और जीएसएसएस में फूट की सबसे बड़ी वजह चंदा की राशि थी जो सामान्य गोरखा समुदाय के गरीब लोगों के द्वारा जमा की जा रही थी। करोड़ों की चंदा राशि की बंदरबांट के बाद जीएसएसएस कई धड़ों में बंटने लगा।
भाजपा-संघ की सोची-समझी रणनीति पर अमल करते हुए वंदना राय जीएसएसएस में फूट डालने में कामयाब हुई। नतीजतन आंदोलन से उपजा ये साझा मंच पिछलग्गू बनकर नफरती सियासत के कारण हाशिए पर पहुंचता चला गया। जीएसएसएस के मुहिम का समर्थन करने वाली सामाजिक व मानवाधिकार कार्यकर्ता रसिका छेत्री का कहना है कि कांग्रेस ने गोरखा समुदाय की राजनीतिक हिस्सेदारी को न केवल बढ़ाया, बल्कि इसको नई ताकत दी। उसके बाद की सरकारों ने केवल गोरखा समुदाय को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया, आम गोरखाओं को केवल ठगा।
गोरखाली लोग 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा सरकार के साथ खड़े हुए जिसकी वजह से पश्चिम बंगाल सहित उत्तर-पूर्व के राज्यों में भाजपा का जनाधार तेजी से बढ़ा। कुछ गोरखा नेता का राजनीतिक रसूख बढ़ा। जीएसएसएस एक समय में अत्यंत प्रभावशाली था, मगर समय के साथ इससे जुड़े आम गोरखाली भी आज केवल भीड़तंत्र का हिस्सा बन कर रह गए हैं, जबकि इसके नाम पर राजनीतिक रोटी सेकने वाले सत्ता की मलाई चाट रहे हैं। अधिकांश गोरखाली आज भी बुरे हालात में जीवन-यापन करने को विवश हैं। गोरखा समुदाय को राजनीतिक संरक्षण की जरूरत है।
पिछले साल जून में थापा के नेतृत्व वाली बीजीपीएम ने गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन चुनाव जीता। फिर दिसंबर में एक नाटकीय मोड़ के साथ उन्होंने पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ टीमएसी के समर्थन से दार्जिलिंग नगरपालिका पर भी अपना कब्जा जमा लिया। उन्हें अब उत्तर बंगाल की पहाड़ियों में एक तेजी से उभरते हुए प्रमुख चेहरे के रूप में देखा जा रहा है। बीजीपीएम, दार्जिलिंग की राजनीति में एक महत्वपूर्ण शक्ति बन गई है। कभी गुरुंग के दाहिने हाथ माने जाने वाले तमांग ने जीजेएम छोड़ दिया। 2017 में दार्जिलिंग में 100 से अधिक दिनों तक चले आंदोलन के दौरान मुख्यमंत्री ममता के साथ बातचीत में उनकी बड़ी भूमिका रही। उस आंदोलन में गोरखालैंड की मांग को लेकर पहाड़ी क्षेत्र में हिंसा भड़कने लगी। तमांग शांतिदूत बनकर उभरे और जीटीए प्रशासक बनाए गए। दिसंबर 2021 में तमांग कोलकाता में एक समारोह के दौरान टीएमसी में शामिल हो गए।
2023 में तमांग ने टीएमसी से इस्तीफा दिया और ‘गोरखालैंड’ आंदोलन में फिर से जान फूंकने के लिए अपने पूर्व राजनीतिक समकक्षों गुरुंग और एडवर्ड्स के साथ हाथ मिला लिया। तमांग गुरुंग, एडवर्ड्स के साथ अपनी रणनीति तैयार करने के लिए एक समिति का गठन करने वाले हैं। आंदोलन को जीवित रखने के लिए राष्ट्रीय समिति का गठन भी संभव है जो 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए राजनीतिक रणनीति बनाएगी। भाजपा सांसद राजू बिस्टा का दावा है कि भाजपा के राष्ट्रीय घोषणापत्र 2019 और राज्य घोषणापत्र 2021 दोनों में ही इस क्षेत्र के लिए एक स्थायी राजनीतिक समाधान की बात कही गई है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि गोरखालैंड की मांग 2024 के चुनावों से पहले और जोर पकड़ेगी। सभी नेता संयुक्त रूप से अलग राज्य की मांग कर रहे हैं, मगर आखिर में गोरखालैंड का चेहरा कौन होगा, इस पर अब भी संशय की स्थिति है।
बीजीपीएम प्रमुख और गोरखालैंड प्रादेशिक प्रशासन के मुख्य कार्यकारी अनित थापा ने बताया कि राज्य सरकार ने बागान मालिकों द्वारा लीज पर ली गई भूमि पर रहने वाले चाय बागान श्रमिकों को प्रजापट्ट (भूमि विलेख) देने की प्रक्रिया शीघ्र शुरू करने और पूरा करने का आश्वासन दिया है। अन्य नेताओं की तरह थापा भी अलग गोरखालैंड के पक्षधर हैं। टीएमसी से अलग गोरखा समाज के नेता बिनय तमांग ने दावा किया कि पंचायत चुनाव से पहले जमीन के कागजात देने का वायदा राज्य सरकार और बीजीपीएम का एक और हथकंडा है।
हैमरो पार्टी के संस्थापक अजय एडवर्डस ने भी कहा कि चूंकि जीटीए पहले किए गए हर वादे को पूरा करने में विफल रहा है, इसलिए पहाड़ी लोगों को जमीन के कागजात देने के नए वादे पर कोई भरोसा नहीं है। जीटीए और राज्य सरकार ने जो किया है वह सरासर राजनीति है और चाय बागान श्रमिकों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ है। पांच राज्यों के चुनावों के बाद देश की राजनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिलेगा। उसके बाद 2024 में आम चुनाव होने हैं। इस आम चुनाव में गोरखाली किसी राजनीतिक गठबंधन के साथ खड़े होते हैं या फिर अपनी अलग राह चुनते हैं, इस पर राजनीतिक विश्लेषकों की नजरें बनी होंगी।